सत् काम – True Love
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” पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।। “
सभी किताबें पढ़ कर मर गए, लेकिन कोई पंडित न हुआ । प्रेम का ढाई अक्षर जिसने पढ़ा वही पंडित हुआ।
अमुक स्त्री या पुरुष मुझसे प्रेम करता या करती है, ऐसा सोचना समझना विभ्रम है। स्त्री-पुरुष का प्रकृति भेद द्वैत है, जो एक चक्रीय पूरक व्यवस्था है। वास्तव में एक के ही परिवर्तित दो भिन्न रूपों का विकास एक रूप को अपने अंदर ही छिपा जाता है। प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष के अंदर एक पुरुष अथवा स्त्री छिपी होती है ,जिसे ही हम वाह्य संसार में ढूंढते हैं | प्रमुख रूप से स्त्री को सृजन एवं पुरुष को सुरक्षा का उत्तरदायित्व प्रकृति प्रदत्त है | दोनों मिलकर संयुक्त रूप से पालन पोषण करते हैं। स्त्री चयन की प्रथम अधिकारिणी होती है। स्त्री का स्त्रीत्व एवं पुरुष का पौरुष, यही आधारभूत भिन्नता आपस में आकृष्ट करती हैं, पुनः एक होने के लिए। इस प्रकार सृष्टि के चक्र की निरंतर गतिशीलता अर्थात पुनरावृत्ति होती रहती है।
” चलती चाकी देखकर , दिया कबीरा रोय ।
दुइ पाटन के बीच में , साबुत बचा ना कोय॥ “
– कबीर दास
जीवन के चक्रीय व्यवस्था में समाहित द्वैत-अद्वैत का सिद्धांत ही प्रदर्शित होता है। दोनों की आधारभूत भिन्नता अर्थात भिन्न मार्ग से आते हैं, एक स्थान पर मिलते हैं अर्थात एक होते हैं, पुनः अपने ही मार्ग पर चलते हैं। यह अपना मार्ग ही आत्मज्ञान का मार्ग है। “जोड़ियां स्वर्ग से ही बनकर आती हैं”। दो योग्य अर्थात समान स्तर से एक दूसरे को समर्पित युगल एक रूप अर्थात नर- नारी से अर्धनारीश्वर हो कर भवसागर पार परम धाम परमेश्वर को प्राप्त होते हैं। यही सच्चा प्रेम है। सच्चा प्यार सभी गुणों और आधार से ऊपर उठकर सभी भिन्नताओं से परे सभी बाधाओं को पार करता हुआ अपना लक्ष्य प्राप्त करता है।
” रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे पे फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ि जाय।। “
– रहीम दास
चक्रीय निरंतर गतिशीलता ही सच्चे प्रेम के परख की कसौटी है और प्रेम-देयता ही मात्र विकल्प है |

” कस्तुरी कुंडल बसै, मृग ढूढ़ै वन माहि।
ऐसे घट घट राम हैं, दुनिया देखे नाहि।। “
– कबीर दास
जिस प्रकार ब्रम्ह सृष्टि की प्रत्येक रचना में व्याप्त हैं किन्तु सब उसे देख नहीं सकते। रहस्य यही है-जिसे हम बाहर से ढूंढते हैं, ढूंढ लेते हैं , अंततः उसे प्राप्त करना अपने अंदर ही है।
” लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल |
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल || “
– कबीर दास
संछेप में “सभी से सौहार्दपूर्ण व्यवहार करे, कौन जाने उनमे से कोई अपना निकल आए। ” यही प्रेमानंद से परमानंद अर्थात ‘सत्-काम’ है।
क्रमशः …